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माँ / हरकीरत हकीर

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<poem>माँ बोलती तो कहीं
गुफाओं के अन्दर से
गूंज उठते अक्षर …
मंदिर की घंटियों में मिल
लोक गीतों की तरह गुनगुना
उठते माँ के बोल …

माँ रोटी तो
उतर आते
आसमान पर बादल
कहीं कोई बिल्ली चमकती
झुलस जाती टहनियां
कुछ दरख़्त खड़े रहते अडोल ….

माँ पत्थर नहीं थी
पानी या आग भी नहीं थी
वह तो आंसुओं की नींव पर उगा
आशीषों का फूल थी …
आज भी जब देखती हूँ
भरी आँखों से माँ की तस्वीर
उसकी आँखों में
उतर आते हैं
दुआओं के बोल … !!
</poem>
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