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वक़्त की लकीरें / हरकीरत हकीर

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<poem>बहुत पहले
मैंने चूरी भी कूटी थी
और द्वार खोल उडीका भी था
तब किसी ने बांसुरी न बजाई
किसी ने नज़्म न गाई
धीरे-धीरे झना का पानी बढ़ता गया
मैं हीर से हक़ीर हो गई …

बरसों बाद कहीं तुझे
बांसुरी बजाते हुए सुना
मैंने दिल का द्वार खोल दिया
कई सारी नज्में तेरे नाम कर दीं
तूने भी कैनवास पर रंगों से मेरा नाम लिखा
पर उम्रों के टूटते टाँके मैं जोड़ न सकी
झना* का पानी बढ़ता रहा …

एक दिन मैंने वक़्त का हाथ पकड़कर पूछा
जब तूने सब कुछ दिया वक़्त क्यों न दिया … ?
रोक लो इस बढ़ते पानी को
मैं डूबना नहीं चाहती …
वह हँस पड़ा बोला
वक़्त की लकीरें तेरे हाथों पर नहीं …

मैं देखा दूर कोई कब्र पर बैठा
बांसुरी बजा रहा था ….

झना - चनाब
</poem>
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