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|रचनाकार=दुलाराम सहारण
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[[Category:मूल राजस्थानी भाषा]]
{{KKCatKavita‎}}<poem>गांव
गांव मांय हुवै
लोग,
लोग सिरजै मकान
कच्चा-पक्का,
राखै बारणा
जका खुलै गळी धकीनै
अर
गळी, हुयनै आपरी साधणा भेळी
रमै गुवाड़।
गुवाड़ मांय तो बसै
एक दूजै जगती,
उणी जगती रै ओळै-दोळै
हो म्हारो रैठाण।

मां
एक दिन थूं
उणी जगती सूं
पकड़ बांवड़ो
खींचनै ल्या छोड्यो हो म्हनैं
उतरादै बारणै वाळी साळ मांय
अर बरड़ायी ही थूं
कै जकी साळा मांय थूं जाम्यो
उणीज मांय उतार लेसूं खाल।

थारी रीस वाजिब ही मां,
क्यूंकै
म्हैं नीं मान्यो थारो कैवणो,
थूं कैयो हो कै
गाय दूहती बगत
आगै खड़्यो होय’र
फेर गाय रै सींगां आंगळी
कर हेत री खाज
बिलमसी गाय अर पावससी।

थूं स्हारै सारू
खींच ल्यायी ही म्हनैं
पण,
ओळमो नीं देवूं मां थनैं
क्यूंकै,
थूं बतायो हो उण दिन
एक जीवण-जंतर
जकै पाण जीवूं म्हैं आज।

उणी जलम-थळी साळ मांय
बसै है म्हारा प्राण,
बदळग्यो जुग
बदळग्यो साळ रो रूप
पण मां
थारी फोटू धक्कै आज ई अरपूं माळा
उणी थळी माथै,
अर करूं उडीक मां,
कै थूं
निकळ फोटू सूं बारै
कैयसी-
आज-आज तो कोई बात नीं
फेरूं राखज्यै ध्यान
खाल उतारूं दुसमीं री,
थूं रम गुवाड़।
अर हां,
इयां-ई ततातोड़ी नीं देजायी गुवाड़,
जावती वेळा
बाल्टी मांय सूं
भरनै गिलास
पींवतो जायजै,
दूध....।
</poem>
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