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भाषा की लहरेंजब वो मस्जिद में अदा करते हैं</div>
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रचनाकार: [[त्रिलोचनइमाम बख़्श ‘नासिख़’]]
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भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहनजब वो मस्जिद में अदा करते हैंमैंने किया। मुझे मानव–जीवन की मायासदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहनसब नमाज़ अपनी क़ज़ा करते हैं
सुन सुनकर धाया–धूपा, मन में भर लायाजिन की रफ़्तार के पामाल हैं हमध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पायाशब्दों वही आँखों में, देखा सबकुछ ध्वनि–रूप हो गया ।मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।फिरा करते हैं
सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।तेरे घर में जो नहीं जाते क़दमभाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गयाकवि मानव का, जगा नया नूतन अभिलाषा ।क्या मेरे तलुवे जला करते हैं
भाषा की लहरों नहीं होते हैं फ़रामोश सनमख़ाक हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं गो नहीं पूछते हरगिज़ वो मिजाज़हम तो कहते हैं दुआ करते हैं मौसम-ए-गुल में जीवन की हलचल है,बशर हैं माज़ूरध्वनि गुल तलक चाक क़बा करते हैं शाद हैं बाग़-ए-फ़ना में क्रिया भरी है और क्रिया वो गुलअपनी हस्ती पे हंसा करते हैं चमन-ए-दहर में बल महबूबों सेक्या ही अशाफ़ वफ़ा करते हैं गर ख़ज़ां आती है फूलों के साथपर अना दिल के उड़ा करते हैं आज वो तेग़-ए-निगह से ‘नासिख़’किश्वर-ए-दिल को कटा करते हैं
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