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<poem>
मेरी सदाओं का सूरज बुझा बुझा सा
न जाने हांपते लम्हों का क्या तक़ाज़ा था

नज़र में खौफ़ का मंज़र समेट लाया हूं
ये और बात कि हर शख़्स ही शनासा था

अजीब शर्त थी दंगा कराने वालों की
नगर में रिश्तों का चेहरा उड़ा उड़ा सा था

हर एक लम्हा बदलता रहा मेरा चेहरा
न जाने वक़्त तकाआर्इ ना चाहता क्या था

ज़मीन प्यासी थी, आंगन के पेड़ प्यासे थे
'कंवल’ के होटों पे सावन का नाम आता था
</poem>
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