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जयति जय जयति परम प्रेम-‌आनंदमय दिय जुगल रस-भाव-जोरी।रूप।नील घन स्याम अभिराम, मुनिकालिंदी-मनतट कदँब-हरन, तल सुषमा अमित अनूप॥दुति करन ज्योति राधा किसोरी।पीत पट ललाम छबिधाम सुचि, नीलसुधा-बरन, स्वर्नमधुर-तन राजत, डारत ठगोरी॥स्यामसौंदर्य-निधि छलकि रहे अँग-छबि निरखत अनिमेष राधा सतत, ‌अंग।स्तध मनु देखि ससधर चकोरी। राधाउठत ललित पल-मुखपल विपुल नव-कमल लखि मा स्यामसुंदरनव रूप-दृग- तरंग॥भृंग रस-पान-रत अमिय घोरी॥सखियन अति भीर जुरी, जुगल रूप निरखन कौं, प्रगटत सतत नवीन छबि दो‌ऊ होड़ लगाय।रहीं सब चकित चितहार न मानत जदपि, तृनहि तोरी।पै दो‌ऊ रहे बिकाय॥नित्य छबीली राधिका-माधव द्वै लसत, मन बसत नित, छबिमय ब्रज-चंद।ह्वै रही प्रेमबस देह मोरी॥बिहरत बृन्दा-बिपिन दो‌उ लीला-रत स्वच्छंद॥
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