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मालिक की किरपा / जेन्नी शबनम

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धुआँ-धुआँ
ऊँची चिमनी
गीली मिट्टी
साँचा
लथपथ बदन
कच्ची ईंट
पक्की ईंट
और ईंट के साथ पकता भविष्य,
ईंटों का ढेर
एक-दो-तीन-चार
सिर पर एक ईंट
फिर दो
फिर दो की ऊँची पंक्ति
खाँसते-खाँसते
जैसे साँस अटकती है
ढ़नमनाता घिसटता
पर बड़े एहतियात से
ईंटों को संभाल कर उतारता
एक भी टूटी
तो कमर टूट जायेगी,
रोज तो गोड़ लगता है ब्रह्म स्थान का
बस साल भर और
इसी साल तो
बचवा मैट्रिक का इम्तहान देगा
चौड़ा-चकईठ है
सबको पछाड़ देगा
मालिक पर भरोसा है
बहुत पहुँच है उनकी
मालिक कहते हैं
गाँठ में दम हो तो सब हो जाएगा,
एक-एक ईंट जैसे एक-एक पाई
एक-एक पाई जैसे बचवा का भविष्य
जानता है
न उसकी मेहरारू ठीक होगी न वो
एक भी ढ़ेऊआ डाक्टर को देके
काहे बर्बाद करे कमाई
ये भी मालूम है
साल दू साल और
बस...
हरिद्वार वाले बाबा का दिया जड़ी-बूटी है न
अगर नसीब होगा
बचवा का
सरकारी नौकरी का सुख देखेगा,
अपना तो फ़र्ज़ पूरा किया
बाकी मालिक की किरपा... !


ढ़नमनाता - डगमगाता
गोड़ - पैर
ढेऊआ - धेला / पैसा
किरपा - कृपा


(मई 1, 2009)</poem>
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