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|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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{{KKCatKavita}}<poem>मेरे पिता ! 
एक दिन
 
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
 
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
 
देखी थी छटपटाहट
 
सुने थे आर्त्तनाद,
 
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
 
साथ-साथ
 
तुम्हें धधकते
 
किसी अनजान ज्वाल में
 
झुलसते
 
मुरझाते,
 
नहीं समझी
 
बुझे घावों में
 
झुलसता
 
तुम्हारा अन्तर्मन
 
आज लगा...
 
बुझी आग भी
 
सुलगती
 
सुलगती है
 
सुलगती रहती है।
</poem>
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