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15:37, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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बांहो में समुन्दर के दरिया का सिमट जाना
और देख के ये मंज़र तेरा वो क़रीब आना
ले ले के तेरा नाम अब कसते है सभी ताना
तुझ बिन मेरे जीवन का सूना है सनम-ख़ाना1
घायल है हर इक ऩग्मा तुम रूठ गये जब से
तुम से है मेरी ख़ुशियां क्यों तुमने नहीं जाना
इमरोज़ के मंज़र पर सदन क़्श हैं माज़ी के
माज़ी से है कैफ़ आगीं इमरोज़ का मयख़ाना2
मां बाप की खुशियां थीं राहों में 'कंवल’ अपनी
वरना हमें आता था संसार से टकराना
1 मंदिर 2. मदिरालय।
</poem>
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