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|रचनाकार=केदारनाथ सिंह
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मेरी भाषा के लोग
 
मेरी सड़क के लोग हैं
 
 
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग
 
पिछली रात मैंने एक सपना देखा
 
कि दुनिया के सारे लोग
 
एक बस में बैठे हैं
 और हिंदी हिन्दी बोल रहे हैं 
फिर वह पीली-सी बस
 
हवा में गायब हो गई
 और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदीहिन्दीजो अंतिम अन्तिम सिक्के की तरह 
हमेशा बच जाती है मेरे पास
 
हर मुश्किल में
 
कहती वह कुछ नहीं
 
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
 
कि उसकी खाल पर चोटों के
 
कितने निशान हैं
 
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
 
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण
 
 
पर इन सबके बीच
 
असंख्य होठों पर
 
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !
 तुम झांक झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालय पूछ लो मेज मेज़ से 
दीवारों से पूछ लो
 छान डालो फ़ाइलों के ऊंचेऊँचे-ऊंचेऊँचे
मनहूस पहाड़
 
कहीं मिलेगा ही नहीं
 
इसका एक भी अक्षर
 
और यह नहीं जानती इसके लिए
 
अगर ईश्वर को नहीं
 
तो फिर किसे धन्यवाद दे !
 
मेरा अनुरोध है —
 
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
 
कि राज नहीं — भाषा
 भाषा भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो 
मेरी भाषा को ।
 
इसमें भरा है
 
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
 इतनी आवाजों का बूंदबूँद-बूंद बूँद अर्क कि मैं जब भी इसे बोलता हूंहूँ
तो कहीं गहरे
 
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
 यहां यहाँ तक कि एक पत्ती के हिलने की आवाज आवाज़ भी सब बोलता हूं जराहूँ ज़रा-जराज़राजब बोलता हूं हूँ हिंदी 
पर जब भी बोलता हूं
 
यह लगता है —
 
पूरे व्याकरण में
 एक कारक की बेचैनी हूंहूँ
एक तद्भव का दुख
 
तत्सम के पड़ोस में ।
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