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|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी
}}
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<poem>
हमने गर हुस्न और ख़ुशबू ही को तोला होता
फिर तो हर पेड़ गुलाबों से भी हल्का होता
रब किसी शय में उतर कर ही मदद करता है
काश मैं भी किसी रहमत का ज़रीया होता
वक़्त अकेला था, मेरी नाक में कुनबे की नकेल
कम नहीं पड़ता अगर मैं भी अकेला होता
सारे ख़त उस ने कलेज़े से लगा रक्खे हैं
ये किया होता अगर मैंने - तमाशा होता
आप को आग में बस आग ही दिखती है ‘नवीन’
ये न होती तो भला कैसे उजाला होता
</poem>
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हमने गर हुस्न और ख़ुशबू ही को तोला होता
फिर तो हर पेड़ गुलाबों से भी हल्का होता
रब किसी शय में उतर कर ही मदद करता है
काश मैं भी किसी रहमत का ज़रीया होता
वक़्त अकेला था, मेरी नाक में कुनबे की नकेल
कम नहीं पड़ता अगर मैं भी अकेला होता
सारे ख़त उस ने कलेज़े से लगा रक्खे हैं
ये किया होता अगर मैंने - तमाशा होता
आप को आग में बस आग ही दिखती है ‘नवीन’
ये न होती तो भला कैसे उजाला होता
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