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<poem>महफ़िलों को गुज़ार पाये हम
तब कहीं ख़लवतों पे छाये हम

हैं उदासी के कोख-जाये हम
ज़िन्दगी को न रास आये हम

खाद-पानी बना दिया ख़ुद को
सिलसिलेवार लहलहाये हम

नस्ल तारों की जिद लगा बैठी
इस्तआरे उतार लाये हम

रूह के होंठ सिल के ही माने
हरकतों से न बाज़ आये हम

फ़र्ज़ हम पर है रौशनी का सफ़र
नूर की छूट के हैं जाये हम

‘प्यास’ को ‘प्यार’ करना था केवल
एक अक्षर बदल न पाये हम

बस हमारे ही साथ रहती है
क्यों उदासी को इतना भाये हम
</poem>
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