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<poem>हश्र कुछ यूँ हुआ जिन्दगी की किताब का ,
मैं जिल्द संवारता रहा और पन्ने बिखरते गये !

जिश्म में बाकी रही जान भर खालिस और,
रूह के हर वो कतरे पल-पल तडपते गये !

नुमाइश क्या करता मैं जख्मों का जहाँ में,
हर वो इरादतन- हादसे तजुर्बों में ढलते गये !

कोई मौला न मिला मेरी दुआओं को
ख़्वाब-दर-ख्वाब आँखों से बिछड़ते गये !

मुझे मंजिल मिलने का गम नहीं यारों,
थक गयी जिन्दगी और रास्ते बदलते गये !
</poem>
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