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<poem>बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !

बाद मुद्दत के ज़ुबां पे आयी,
जो ये शिकस्त की कहानी ,
फासले जो दरमयां करने लगे...

बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !

साथ निभाने की खाकर कसमे,
बात आयी जब रस्मे निबाह की
हाले मुफलिसी बयाँ करने लगे...

बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !

ज़िन्दगी जीना तो एक तकल्लुफ था
तजुर्बे हवादिश का जब ज़िक्र हुआ ,
राह-ए-गुजर को जाया कहने लगे ...

बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे ,
मुझे अब वे पराया कहने लगे !

</poem>
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