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Kavita Kosh से
और फ़ूल के नन्हे से दिल पर चट्टान धरी है
घिरी आग की लाल घटाएँ तरु-२ पर उपवन के
पात-२ पात पर अंगारों की धूप-छाँह छितरी हैनीड़-२ नीड़ पर वज्र-बिजलियों की आँधी मँडरातीतृण-२ तृण में करवटें ले रहा मरूस्थल का पतझार
जन्म है यहाँ मरण-त्योहार..
लगा हुआ हर एक यहाँ जाने की तैयारी में
भरी हुई हर गैल, चल रहे पर सब लाचारी में
एक-२ एक कर होती जाती खाली सभी सरायेंएक-२ एक कर बिछुड़ रहे सब मीत उमर बारी में और कह रही रो-२ रो कर हर सूनी सेज अटारी
सदियों का सामान किया क्यों रहना था दिन चार?
जन्म है यहाँ मरण-त्योहार..
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