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शैशव में, उस रूग्ण दशा में तेरी वह चिंतातुर चर्या !<br><br>
मैं जो कुछ हूं, आज तुम्हारी ही आशीष, प्रसादी, मूर्ता,<br>
गयीं आज तुम देख फुल्लपरिवार, कामना सब संपूर्ता<br>
किंतु हमारी ललक हठीली अब भी तुम्हें देखना चाहें,<br>
नहीं लौट कर आने वाली, वे अजान, अंधियारी राहें ...<br>
मरण जिसे हम साधारण-जन कहते हैं, वह पुरस्सरण है ।<br>
क्षण-क्षण उसी ओर श्वासों के बढ़ते जाते चपल चरण हैं ।<br>
फिर भी हम अस्तित्व मात्र के निर्णय को तज, नियति-चलित से<br>
कठपुतली बन नाच रहे हैं, ज्यों निर्माल्य प्रवाह पतित से !
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