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तहमास बेग खाँ बहादुर आदमी थे, इसलिए जल्द ही बादशाहों के क़रीब हो गए। उन्हें 'एतिकादे-जंग' का ख़िताब भी मिला। तहमास खाँ ने अपने बेटे सआदत यार खाँ को बड़े प्यार से पाला। प्रारम्भिक शिक्षा अच्छी दी गई। फ़ने-सिपहगिरी की भी शिक्षा दी गई। तहमास खाँ का शुमार उस समय रईसों में होता था। सआदत यार खाँ ने अपने पिता के बारे में लिखा है -- मेरे बाप नादिर शाह के लश्कर में दस साल रहे हैं। बहादुरी के ऐसे क़िस्से उनके नाम से मशहूर हैं कि सुनने पर यक़ीन नहीं आता। शुजाअत अर्थात वीरता की इन्ही तेज़ लहरों के बीच रंगीन की परवरिश हुई। केवल 15 वर्ष की आयु से ही रंगीन ने शेर कहना शुरू कर दिया था। रंगीन का पहला दीवान 1203 हिजरी में मुकम्मल हो चुका था। सआदत यार खाँ फौजी की हैसियत रखते थे, लेकिन उर्दू शायरी का जादू सर चढ़कर बोल रहा था। जंग के मैदान में होते तब भी शेरो-शायरी का जुनून छाया रहता। इस तरह रंगीन की शायरी की ख़ुशबू दूर-दूर तक फैलती जा रही थी। शायरी का जुनून ऐसा था कि मुलाजमत छोड़ दी और भरतपुर चले गए। इसके बाद वह लखनऊ आ गए और शहज़ादा सुलेमान शिकोह के दरबार से जुड गए। शहज़ादे ने उन्हें खज़ाने का मोहतमिम (सर्वेसर्वा) बना दिया। इतिहास में यह घटना भी दर्ज है कि रंगीन ने अमानत में हेरा-फेरी की। शहज़ादे के खज़ाने से एक बड़ी रक़म हड़प ली, लेकिन शहज़ादे ने उन्हें माफ़ कर दिया। रंगीन 9 साल तक लखनऊ में रहे। आसिफ़द्दौला के इन्तकाल के बाद वह विभिन्न क्षेत्रो में घूमते रहे। विशेष रूप से बंगाल से जुड़ी बहुत-सी कहानियाँ मौजूद हैं। फिर उन्होंने बंगाल में नौकरी कर ली। जीवन के विभिन्न रंगों का जादू ऐसा था की उन्हें अपने अशआर में ढालते हुए रंगीन को लुत्फ़ आता था। यह दौर उर्दू के बड़े शायरों का था, लेकिन रंगीन के शेरो की अपनी ख़ुशबू थी।
रंगीन का पेशा सिपहगिरी था। राजाओ राजाओं और नवाबो नवाबों के साथ उठना-बैठना था। अकीदे के एतबार से रंगीन हनफ़ी-सुन्नी थे इसलिए उनके क़लाम में जगह-जगह सूफ़ियाना रंग भी मिलता है। रंगीन तबियत से आशिक मिज़ाज भी थे। उन्होंने अपने ख़त में अपनी महबूबा का ज़िक्र किया है। एक ख़त ऐसा भी है जिसमे लखनऊ की एक फिरंगी औरत से इश्क के तजकरे में मिलते है। रंगीन ने फारसी और उर्दू में भी शायरी की है। मसनवियाँ भी लिखी हैं। रंगीन की हज़ल गोई और फ़हश-निगारी भी प्रसिद्ध है। उन्होंने तवायफ़ों, मुगलनियों पर भी अशआर कहे हैं। इस तरह रंगीन के कितने ही रंग हैं। एक तरफ़ ग़ज़लगो और शायर हैं तो दूसरी तरफ़ मसनवी-निगार और कसीदा-निगार भी। रंगीन के नाम से कितनी ही कहानियाँ मशहूर हैं। वो ज़माना रेख़ती का था। मीर-सौदा जैसे शायर इस रेख़ती पर कुर्बान थे, लेकिन रंगीन की रेख़ती तो क़यामत थी। आबे-हयात में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने रंगीन की ज़िन्दगी पर बी 'नूर न कहती है...' के हवाले से बड़ी ख़ूबसूरत रौशनी डाली है। अब आप भी देखिए कि बेचारी नूरन क्या कहती है...
'अरे अब एक मज़े की बात सुनिए.. वो सआदत यार खाँ जो हमास का बेटा है न...अनवरी ..सुना है, वो भी रेख़ती में शायरी करता है। अपना नाम रंगीन रखा है। अरे... एक क़िस्सा भी लिखा है। क़िस्से का नाम दिलपजीर रखा है। अब क्या बताऊँ... क़िस्से में क्या है? रण्डियों की बोली है। मसनवी क्या है, जैसे साण्डे का तेल बेच रहे हों, लेकिन वाह से जमान... दिल्ली-लखनऊ के रण्डी से मर्द तक सब उसका क़लाम गा रहे हैं।'
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