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चार नाते / हरिऔध

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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चुभते चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
चाहिए था सींचना जल बन जिसे।

तेल वह उस के लिए वै+से बने।

तब भला हम क्यों न जायेंगे उजड़।

जब कि जोड़ई ही हमारी जड़ खने।

घरनियाँ हैं सभी सुखों की जड़।

रूठ सुख - सोत वे सुखायें क्यों।

निज कलेजा निकाल देवें जो।

वे कलेजा कभी कँपायें क्यों।

भूल जायें न नेकियाँ सारी।

बाप के सब सलूक को सोचें।

हो गईं रोटियाँ अगर महँगी।

बेटियाँ तो न बोटियाँ नोचें।

वे पहन लें न, या पहन लेवें।

चूड़ियाँ किस तरह मरद पहनें।

नेह - गहने अगर पसंद नहीं।

चौंक पत्थर हमने न तो बहनें।

जो जिलायें उलझ न उलझायें।

और बेअदबियाँ न सिखलायें।

वे मुआ दें हमें जनमते ही।

पर बलाये बनें न मातायें।

दूसरे मोड़ मुँह भले ही लें।

माँ किसी की कभी न मुँह मोड़े।

रंग बदले तमाम दुनिया का।

देवतापन न देवता छोड़े।

जब बदी पर कमर कसे घरनी।

सुख फिरे किस तरह न कतराया।

तब भला वह सँभल सके वै+से।

जब करे देह पर सितम साया।

मुँह सदुख ताक ताक बहनों का।

तो न नाते तमाम क्यों रोवें।

चोर जी में अगर घुसे उन के।

जो सराबोर नेह में होवें।

हित करें जो बेटियाँ हित कर सकें।

नित मचा कर दुंद वे न दुचित करें।

तब भला वै+से ठिकाने चित रहे।

जब हमें चित की पुतलियाँ चित करें।
</poem>
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