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हमारी देवियाँ / हरिऔध

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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चुभते चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
जाति की, वु+ल की, धारम की, लाजकी।

बेतरह ए ले रही हैं फबतियाँ।

हैं लगाती ठोकरें मरजाद को।

देवियाँ हैं याकि ए हैं बीबियाँ।

हम उन्हें तब देवियाँ वै+से कहें।

बेतरह परिवार से जब तन गईं।

बीबिआना ठाट है बतला रहा।

आज दिन वे बीबियाँ हैं बन गईं।

चूस करके सब सलूकों का लहू।

नेह-साँसें चाव से गिनने लगीं।

तब भला न मसान घर वै+से बने।

डायनें जब देवियाँ बनने लगीं।

क्या न है फेर यह समय का ही।

देवियाँ जाँय जो चुड़ैलें बन।

नाम के साथ वे लिखें देवी।

जो रखें नाम को न देवीपन।

सब घरों को दें सरग जैसा बना।

लाल प्यारे देवतों जैसा जनें।

अब रहे ऐसे हमारे दिन कहाँ।

देवियाँ जो देवियाँ सचमुच बनें।
</poem>
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