भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छींक / हरिऔध

11 bytes removed, 05:45, 19 मार्च 2014
{{KKCatKavita}}
<poem>
पड़ किसी की राह में रोड़े गये। 
औ गये काँटे बिखर कितने कहीं।
 जो फला फूला हुआ वु+म्हला कुम्हला गया। 
यह भला था छींक आती ही नहीं।
क्यों निकल आई लजाई क्यों नहीं।
 
क्यों सगे पर यों बिपद ढाती रही।
 
तब भला था, थी जहाँ, रहती वहीं।
 
छींक जब तू नाक कटवाती रही।
राह खोटी कर किसी की चाह को।
 
मत अनाड़ी हाथ की दे गेंद कर।
 
छरछराहट को बढ़ाती आन तू।
 
छींक! छाती में किसी मत छेद कर।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
1,983
edits