भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatKavita}}
<poem>
है सुधारों की वहाँ पर आस क्या।
हो जहाँ पर सिरधारों का सिर फिरा।
बढ़ गये मान भूख तंग बने।
आप का रह गया न वह चेहरा।
देखिये अब उतर न जाय कहीं।
आप के सिर बँधा सुजस सेहरा।
तब भला वै+से कैसे न हम मिट जायँगे। मनचले वै+से कैसे न तब हम को ठगें।
फिर गये सिर जब हमारे सिर धारे।
बात बे-सिर-पैर की कहने लगें।
हैं हमारे पंथ जो प्यारे बड़े।
हैं बुरे काँटे उन्हीं में वो रहे।
देख कर के सिरधारों का सिर फिरा।
हैं कलेजा थाम कर हम रो रहे।
</poem>