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लताड़ / हरिऔध

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<poem>
क्या किसी खोह में पड़ी पा कर। 
लड़कियाँ लोग हैं उठा लाते।
 
जो बड़े ही कपूत लड़कों से।
 हैं तिलक बेधाड़क बेधड़क चढ़ा आते।
हैं न भलमंसियाँ जिन्हें प्यारी।
 
है जिन्हें रूपचन्द से नाता।
 
जब न मुट्ठी गरम हुई उन की।
 
क्यों भला तब तिलक न फिर आता।
नीचपन, नंगपन, निठूरपन का।
 
है जिन्होंने कि ले लिया ठीका।
 
न्योत करके बिपद बुलाते हैं।
 
लोग उनके यहाँ पठा टीका।
लोग इतने गिरे जहाँ के हैं।
 
कौड़ियों तक सहेज घर भेजा।
 
पिस गईं लड़कियाँ जहाँ जा कर।
 
हैं वहाँ भेजना तिलक बेजा।
पास जिन के नहीं कलेजा है।
 
बेटियाँ बेंच जो अघाते हैं।
 
वे लगा कर कलंक का टीका।
 
मोल टीका बहुत लगाते हैं।
क्या सयानी हुई नहीं लड़की।
 
लाख फटकार ऐसे कच्चे को।
 
आप वह बन गया निरा बच्चा।
 
दे तिलक आज एक बच्चे को।
जो भली राह पर चला न सके।
 
तो बुरी राह भी न बतलाये।
 हो तिलक एक नामवर वु+ल कुल के। 
क्या तिलक लंठ के यहाँ लाये।
लड़कियाँ बोल जो नहीं सकतीं।
 
तो बला में उन्हें फँसायें क्यों।
 
भेज करके बुरी जगह टीका।
 
हम उन्हें धूल में मिलायें क्यों।
</poem>
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