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अमवा इमिलिया महुवआ की छइयाँ
बहुतइ बिरही मोरे बिरहा कै अगिया...
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हिन्दी में भावार्थ: धरती के प्रति किसान का अप्रितिम प्रेम इस कविता में व्यक्त हुआ है। उस धरती से किसान का दूर कर दिया जाना, सहज रोष के रूप में कविता में आद्यंत विन्यस्त है। कवि वाणी है: (एक चित्र खींचा जा रहा है, कहिये तो भूमिका बनायी जा रही) आम इमली महुआ की छाया में जेठ/बैसाख की दोपहर के बीच थोड़ा सुस्ताना होता है। अवध की जमीन धान का कटोरा है। धरती अधीर होकर वर्षा की बाट जोहती है। असाढ़ लगते ही बादल घुमड़ आते हैं, धरती पर कुछ बूँदें पड़ जाती हैं गोकि धरती को ठंडक पहुँची हो। इस समय गरीब-गुर्बा जन फावड़ा/कुदाल लेकर युगों की परती पड़ी जमीन को तोड़ने निकलता है। पहला ही वार जैसे उस ठोस परती पर डालता है, कुदाल छनक जाती है। प्रभाव कुछ ऐसा कि जैसे सर पर गिरे और खोपड़ी दुख जाए। वह ऊसर/बंजर को उपजाऊ बनाने वाली कठिन प्रक्रिया सोचता है। अपार दुख सह कर उसने धरती को उपजाऊ बनाया है, इस जमीन से जुड़ी पीड़ा को कोई और क्या जाने, यही धरती उसकी माँ है, मरने पर भी इसकी ममता कहाँ जाने वाली!! उसकी इसी जमीन का हरण हो गया है। ( या कर लिया जाता है ) यही उसके दुख का कारण है। किसान कहता है: हे मित्रों/दुलारों , खेत/खलिहान में लड़ाई छिड़ी है, मेरा साथ निभा दो। इस संग्राम में मेरे साथ जो तलवार गहेगा, उसी का गीत गाया जायेगा, उसी की रागें छिड़ेंगी। मैं खून से रेशम की पगड़ी रंगूँगा और हे बबुआ, तुम्हारे माथे पर पहनाउँगा। मेरा कलेजा तो जन्म से ही बिरही है। इस छाती की आग कहाँ बुताने वाली ! हम सब संघर्ष की जोत जला कर इस अन्याय की दुनिया को बुझा देंगे। देखिये, मेरे बिरहे(काव्य-रूप) में कितना बिरह है, इसकी राग कितनी बिरही है। यानी संघर्ष की बहुतै उत्कंठा है।