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11:47, 31 मार्च 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुमन केशरी
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<poem>
सुनो शकुंतला
क्या अब भी तुम सपने में
खोजती हो दुष्यंत को
और दिखते हैं
दुर्वासा
क्यों आते हैं
दुर्वासा तुम्हारे सपनों में अब तक
ऋषिगण तो चले गए थे न
देवताओं के साथ ही
मर्त्यलोक छोड़ कर
शकुंतला,
क्या कभी वह मछली भी आती है सपने में
जिसने धारण किया था अंगूठी को
देह के भीतर
शाप की अवधि पूरी होने तक
क्या तुमने कभी उस
बिना धड़ वाली मछली को गाते सुना है
या तुम्हें हर आवाज में
अब भी दुर्वासा का शाप सुनाई पड़ता है?
शकुंतला, सखी
ऋषिगण तो छोड़ गए मर्त्यलोक
देवताओं के साथ ही,
अब तो बस वह मछली गाती है
प्रेम का कोई बिसरा गीत
सुनो
गौर से सुनो
मेरे सपने में आकर सुनो तो सखी
प्रेम का वही बिसरा गीत
जो फूटा था तुम्हारे होंठों से कभी
कण्व के आश्रम में।
</poem>