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धुंध में औरत / सुमन केशरी

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चीरती धुंध को
निकलती है एक अस्पष्ट आकृति
खुद को समेटे
चौकन्नी सी
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
बढ़ती है औरत
धुंध से धुंध तक
चीरती हुई
धुंध।

कुछ आहटें हैं पास
कहकहे लगातीं, आवाजें कसतीं
बुलातीं, मनुहार करतीं


काँपता है तन
पत्ते सा पतझर में

मन को समेटती
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
जा छिपती है औरत
धुंध में।
</poem>
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