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हाथ और कमल / हरिऔध

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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
है न वह रंग औ न वह बू।
और वैसा नहीं बिमलपन है।
वे भले ही रहें कमल बनते।
पर कहाँ हाथ में कमलपन है।

कब सका लिख, सका बसन कब सी।
कब सका वह कभी कमा पैसा।
हाथ तुझ में कमाल है वैसा।
क्या कमल में कमाल है वैसा?

दाम की कैसी कमी तेरे लिए।
हाथ तू तो है कमल जाता कहा।
मानते हैं माननेवाले यही।
कब कमल आसन न कमला का रहा।

हैं हमें भेद कम नहीं मिलते।
गो उन्हें हैं समान कह लेते।
फूल करके कमल महक देंगे।
फूल कर हाथ हैं कुफल देते।

हैं खिले मुँह सभी उन्हीं जैसे।
हैं उन्हीं के समान नयन नवल।
हाथ ऐसे सुहावने न लगे।
कम लगे हैं लुभावने न कमल।

जब सदा जोड़ते रहे नाता।
तब उसे तोड़ते रहे कैसे।
क्या कमल के लिए ललाये तब।
हाथ जब आप हैं कमल जैसे।
</poem>
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