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निराले लोग / हरिऔध

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{{KKRachna
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
एक डौंडी है बजाती नींद की।
दूसरे मुँहचोर से ही हैं हिले।
नाक तो है बोलती ही, पर हमें।
नाक में भी बोलने वाले मिले।

आप जो चाहिए बिगड़ कहिये।
पर नहीं यह सवाल होता हल।
पाँव की धूल झाड़ने वाला।
किस तरह जाय कान झाड़ निकल।

तब हमारी बात ही फिर क्या रही।
जब न कोई कान नित मलता रहे।
हिल न बकरे की तरह दाढ़ी सके।
मुँह न बकरी की तरह चलता रहे।

बाल से बेतरह बिगड़ करके।
किस जनम की कसर गई काढ़ी।
बन गई भौंह, कट गई चोटी।
उड़ गई मूँछ, बन गई दाढ़ी।

हैं भला किस काम के कुछ बाल वे।
जो किसी मुँह पर न भूले भी खिले।
तब करे रख क्या, न रखना चाहिए।
जब कि बकरे सी बुरी दाढ़ी मिले।

सब खटाई ही हमें खट्टी मिली।
और मीठी ही मिलीं सब साढ़ियाँ।
देख लम्बा डील लम्बी बात सुन।
क्यों खटक जातीं न लम्बी दाढ़ियाँ।
</poem>
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