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अजीब / रंजना जायसवाल

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<poem>
जब मैंने तुम्हें पिता कहा
हँस पड़े तुम
मजाक मानकर
जबकि यह सच था
तब से आज तक का सच

जब पहली बार मिले थे हम
तुम्हारा कद ..चेहरा
बोली–बानी
रहन–सहन
सब कुछ अलग था पिता से
फिर भी जाने क्यों
तुम्हारी दृष्टि
हँसी
स्पर्श
और चिंता में
पिता दिखे मुझे

मेले में तुम्हारी अंगुली पकड़े
निश्चिन्त घूमती रही मैं
पूरी करवाती रही अपनी जिद
मचलती-रूठती
तुरत मान जाती रही
तुम निहाल भाव से
मुझे देखते और मुस्कराते रहे

मैंने यह कभी नहीं सोचा
कि क्या सोचते हो तुम मेरे बारे में
तुमने भी नहीं चाहा जानना
कि किस भाव से इतनी करीब हूँ मैं
आज जब तुमने कहा मुझे ‘प्रिया’
मैंने झटक दिया तुम्हारा हाथ
कि कैसे कर सकता है पिता
अपनी ही पुत्री से प्यार!

मैं आहत थी उस बच्ची की तरह
जिसने पढ़ लिया हो
पिता की आँखों में कुविचार
नाराज हो तुम भी
कि समवयस्क कैसे हो सकता है पिता
कर सकता है इतना प्यार
एक कल्पित रिश्ते को
निभा सकता है आजीवन
तुम जा रहे हो मुझसे दूर
मैं दुखी हूँ
तुम्हारा जाना पिता का जाना है
जैसे आना
पिता का आना था.
</poem>
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