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|रचनाकार=जेन स्प्रिंगर
|अनुवादक= प्रेमचन्द गांधी
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<poem>
जब उन्‍होंने कहा कि मत बोलो तब तक
कहा ना जाए जब तक बोलने के लिए
हमने अपने कान मकई के भुट्टों जैसे बड़े कर लिए

जब उन्‍होंने हमें सब कुछ खा लेने के लिए मज़बूर किया
हम उनके तमाम दुखों को निगल गईं

जब उन्‍होंने हमें दीवार पर चित्रकारी करने के लिए पीटा
हमने परदों के पीछे वाले दरवाज़े रंग डाले

पीढि़यों तक वे ऐसे ही
हमें बेतरह बचाने की कामना के साथ
जीवन गुज़ारते रहे
बिना यह जाने कि कैसे बचाना है

और इसी सबके बीच हमने
असामान्‍य जगहों में तलाश लिया प्रेम
अपनी देह और चेहरों के उजाड़ गिरजों में
उनके लंबे तिरछे मुड़े हुए चेहरों में.
</poem>
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