भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ॐ जय जगदीश हरे / आरती

No change in size, 19:19, 1 दिसम्बर 2007
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ॥<br><br>
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं गहूँ मैं किसकी ।<br>तुम बिन और न दूजा, आस करूं करूँ मैं जिसकी ॥<br><br>
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी ।<br>
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति ।<br>
किस विधि मिलूं मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमति ॥<br><br>
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे ।<br>
Anonymous user