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मेरे पास भरोसे की आँख थी
मैंने पाया कि चीज़ें वैसी नहीं थीं
जैसी वे मुझे नज़र आती थीं
शायद मुझे वैसी दिखाई देती थीं वे
जैसा मैं देखना चाहती थी उन्हें

फिर एक दिन
कुछ ऐसी किरकिरी
हुई महसूस
कितने ही लेंस आजमाने के बाद
मिला मुझे यह चश्मा
लेकिन नही करता यह मेरी सहायता
चीज़ों को साफ़ देखने में
वे इतनी विरूपित हैं
की छिन गया है
मन चाहा देखने का भी सुख

मैं अपना चश्मा बदलना चाहती हूँ
</poem>
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