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नाविक मेरे / अपर्णा भटनागर

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<poem>
ये आज है
कल थक कर बिखर गया है
जैसे थक जाती है रात
और कई आकाशगंगाएं ओढ़ कर सो जाती है
एक तकिया चाँद का सिरहाने रख
सपनों पर रखती है सिर..
और सुबह की रूई गरमाकर
बिनौलों संग उड़ जाती है दूर दिशाओं के देश में
तब अपने आज पर
हरे कदमों संग तुम चल देते हो
जहां से बहकर आती है एक नदी
उसकी लहरों पर सुबह का पुखराज जड़ जाता है पीताभ
तुम इन लहरों पर उतार देते हो कल की नाव
आकाश के पंख काट देते हैं समय का पानी
और तुम आने वाले तूफ़ान पर खोल देते हो अपने पाल
मैं देखती हूँ
तुम्हारी नाव बो आई है
क्षितिज के कमल, सफ़ेद - लाल
और तुम्हारे खुले हाथों ने पकड़ लिया है हवा को
अपने रुख के अनुकूल
कल के किनारे पर जा पहुंची है
तुम्हारी नाव ..
सखा, इस किनारे पर स्वागत हेतु
मैंने सजा रखी हैं सीपियों की बलुआ रंगोलियाँ ..
बचपन के घरौंदे
जिन्हें पैरों पर लादकर बैठी रहती थी विजित भाव से
तुम नाविक हो ..
लौट जाओगे जहां से फूटेगा प्रकाश
मैं रेत में पैर डाल
सजाऊँगी फिर एक किनारा
जहां तुम्हारी नौका लग सके ...अविराम!
</poem>
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