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परिशिष्ट-5 / कबीर

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<poem>
देखि देखि जग ढूँढ़िया कहूँ न पाया ठौर।
जिन हरि का नाम न चेतिया कहा भुलाने और॥81॥

कबीर धरती साध की तरकस बैसहि गाहि।
धरती भार न ब्यापई उनकौ लाहू लाहि॥82॥

कबीर नयनी काठ की क्या दिखलावहि लोइ।
हिरदै राम न चेतही इक नयनी क्या होइ॥83॥

जा घर साध न सोवियहि हरि की सेवा नांहि।
ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन मांहि॥84॥

ना मोहि छानि न छापरी ना मोहि घर नहीं गाउँ।
मति हरि पूछे कौन है मेरे जाति न नाउँ॥85॥

निर्मल बूँद अकास की लीनी भूमि मिलाइ।
अनिल सियाने पच गये ना निरवारी जाइ॥86॥

नृपनारी क्यों निंदिये क्यों हरिचेरी कौ मान।
ओह माँगु सवारै बिषै कौ ओह सिमरै हरि नाम॥87॥

नैंन निहारै तुझको òवन सुनहु तुव नाउ।
नैन उचारहु तुव नाम जो चरन कमल रिद ठाउ॥88॥

परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि।
खिंथा जल कुइला भई तागे आँच न लागि॥89॥

परभाते तारे खिसहिं त्यों इहु खिसै सरीरु।
पै दुइ अक्खर ना खिसहिं त्यों गहि रह्यौ कबीरु॥90॥

पाटन ते ऊजरूँ भला राम भगत जिह ठाइ।
राम सनेही बाहरा जमपुर मेरे भाइ॥91॥

पापी भगति न पावई हरि पूजा न सुहाइ।
माखी चंदन परहरै जहँ बिगध तहँ जाइ॥92॥

कबीर पारस चंदनै तिन है एक सुगंध।
तिहि मिलि तेउ ऊतम भए लोह काठ निरगंध॥93॥

पालि समुद सरवर भरा पी न सकै कोइ नीरु।
भाग बड़े ते पाइयो तू भरि भरि पीउ कबीर॥94॥

कबीर प्रीति इकस्यो किए आगँद बद्धा जाइ।
भावै लंबे केस कर भावै घररि मुड़ाइ॥95॥

कबीर फल लागे फलनि पाकन लागै आँव।
जाइ पहूँचै खसम कौ जौ बीचि न खाई काँव॥96॥

बाम्हन गुरु है जगत का भगतन का गुरु नाहिं।
उरझि उरझि कै पच मुआ चारहु बेदहु माहि॥97॥

कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेक हजार।
हरुये हरुये तिरि गये डूबे जिनि सिर भार॥98॥

भली भई जौ भौ पर्‌या दिसा गई सब भूलि।
ओरा गरि पानी भया जाइ मिल्यौ ढलि कूलि॥99॥

कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु।
दावा काहू को नहीं बड़ी देस बड़ राजु॥100॥</poem>
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