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05:00, 21 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शिरीष कुमार मौर्य
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पिछले साल मैं ग्यारहवीं में पढ़ने लगा था
और वो आठवीं में
उसने उपहार में समोसे मांगे थे हरी चटपटी चटनी के साथ
और मुझे दिया था एक नया सूती रूमाल
वह मेरे साथ-साथ रेल से भी प्यार करने लगी थी
चमचमाती पटरियां और उन पर से गुज़रती रेल उसे रोमांचित करती थीं मैं किसी स्टेशन पर किसी रेल से उतरता था
वो किसी स्टेशन पर किसी रेल में चढ़ती थी
पिछले साल ग्वारहवीं में पढ़ते हुए मैंने ख़ुद को पहाड़ी तेंदुआ महसूस किया था पिछले साल मैं ख़ुद पर और अपने आसपास पर ज़ोर से गुर्राया था
पिछले साल आठवीं में पढ़ते हुए उसने मेरी पीठ को प्यार से सहलाया था पिछले साल मैं वन में था
पिछले साल वो बताती थी मैं उसके मन में था
चालीस से तुरत पहले की उम्र में पन्द्रह-अट्ठाह बरस की दो उम्रें निकल आती थीं वो अपनी उम्र में से दो उम्रें निकाल लेती थी
मैं अपनी उम्र से दो उम्रें निकाल लेता था
हमारी आसन्न प्रौढ़ता दुबारा किशोर होने की
एक आत्मीय और प्रसन्न उम्मीद को जन्म देती थी हमारी स्मृति और कल्पना उर्वर थीं
ग्यारहवीं में पढ़ने लगना अजीब नहीं था आठवीं में पढ़ने लगना अजीब नहीं था
एक दिन ग्यारहवीं में पढ़ते हुए मैंने उसे एक रेल में बिठाया एक दिन आठवीं में पढ़ते हुए वह एक रेल में बैठी
प्लेटफॉर्म पर मैं खड़ा रहा रेल में वह चली गई
मैंने उन्तालीस की उम्र में सोचा
कि प्रेम कुछ भी हो कद्दू की बेल नहीं हो सकता जिस पर फूल भले सुन्दर, पीले और नाज़ुक खिलें फल लेकिन कद्दू ही लगता है
वह चली गई
उसका चले जाना जारी रहा
बहुत दूर नहीं गई पर चले जाते रहने से अंतराल बढ़ गया उसे भूगोल में दूर नहीं जाना था समय में जाना था
जहां से वह गई समय का वह सिरा उसने दांत से काट दिया जैसे कभी बटन लगाने के बाद काटा था धागा
और धागे की वह रील मुझे फिर कभी नहीं मिली।
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