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04:44, 22 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विपिन चौधरी
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<poem>
मन के भीतर मन
उसके भी भीतर एक और मन
मन का एक दरवाज़ा खुलता है तो दूसरा बंद होता है
और मन की चौकसी करते
हैं मजबूत और मुस्तैद दरवाज़े
मन की एक सुरंग में डेरा डाल रखा है
सहेली के उस निष्ठावान प्रेमी ने
जो दूसरी ओर आँख उठा कर भी न देखता था
दूर रिश्तेदारी के रोशन चाचा जो
देव आनंद सा रूप-रंग के कर जन्में थे
पड़ोस की वह कुबड़ी दादी
जो अपनी दादी से भी प्यारी लगा करती थी
ढेर साड़ी गुड़ियां और उनकी गृहस्थी का छोटा-मोटा साजों सामान
पड़ोस का दीनू
जो परीक्षा के दिन उसकी साईकल का पंचर लगवा कर आया
और आज तक साईकल में पंचर लगवाता हुआ ही दिखाई देता है
एक अधूरा प्रेम
जो दुनिया का ज़हर पी-पी कर
कालिया नाग बन गया था
बाहर ज़रा सी आहाट हुई और
दरवाज़ा भेड़ कर वह
मुस्कुराते हुए अपने शौहर का ब्रीफकेस हाथ में थाम कर
कह उठती है
'आप मूह हाथ धो आईये
मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ '
और माथे पर चू आये पसीने को पोंछती है
नज़र बचा कर
आखिर इतने मन के खुले हुए दरवाज़ों का
झटके से मुहं बंद करना कोई आसन काम तो नहीं
</poem>
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