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मुस्कान / विपिन चौधरी

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<poem>
मेरी मुस्कान मेरे कानों तक
नहीं पहुँच पा रही थी
तब मैंने इस धरती को छुआ
पर धरती के पास गुदगुदी थी
मुस्कान नहीं
मुस्कान तो उस
मांसाहारी पिचर पौधे की तरह
भीतरी तल में बैठी है
जहाँ से रस लेना कठिनता का अंतिम छोर जैसा है
ना जाने क्यों मेरी मुस्कान को
अमर हो जाने का चस्का लगा है
जानती हूँ बंद कलियों में सिमटा
मेरी स्मित का
पूरा रहस्य ज्ञान
पर एक अदृश्य बागबान के चलते
कलियों तक किसी की पहुँच नहीं है
अपनी हंसी के साथ मैं मुस्कान को भी गड़प कर जाती
गर जानती कि
मुक्त दुनिया में मेरी मुस्कान पर ग्रहण लगेगा
और मेरी मुस्कान
किसी मुठ्ठी में बंद हो कसमसायेगी
</poem>
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