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अब क्या हो / विपिन चौधरी

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<poem>
एक तिलस्मी पल की नोक पर
मेरा आमना-सामना प्रेम से हुआ
उजला - सफेद - मृदुल प्रेम - चिरपरिचित प्रेम
मेरी नजर पड़ते ही
वह शरमा दिया
ओह
मैं प्रेम की रुपहली आँखों में
रुस्तमी ख्वाबों के बेल-बूटे टांक देना चाहती हूँ
पर प्रेम ने अपनी आंखें अधखुली रख छोड़ी हैं

मैं उसे आवाज देना चाहती हूँ तो वह
गली के उस पार जा चुका होता हैं

मैं उसको छूना चाहती हूँ
तो वह हवा होता है
उसे
अपने भीतर समेटना चाहती हूँ
तो वह शिला होता है

अब
मैं अपनी भाषा में गुम
और प्रेम अपनी लिपि में लोप
</poem>
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