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08:14, 22 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विपिन चौधरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
कितने बरस बीते
दुख की परिक्रमा करते-करते।
सुख के बादल
कहीं दूर जा कर ही बरसे।
खिड़कियाँ सपनों के लिए ही थी बनी
पर सपने अपनी दूर की दुनिया में व्यस्त दिखें।
रंगों की अलभ्य रोशनी
बादलों ने अपना लीं।
तमाम हसरतों की चाबी
महलों ने छीनी।
ज़बान ने चबा लिए
सारे के सारे कीमती शब्द।
क्या बचा रहा मेरे पास
मृगमरीचिकाएँ,
संत्रास भरी हवाएँ,
सपनों की मृत छालें,
थकावट भरी परिक्रमाएँ,
लंबी होती परछाइयाँ,
कड़वाहट में सना हुआ सुख का चिथड़ा।
अब दो अप्रैल का यह दिन
कौन सी नई कहानी ले कर आया है।
किसी ऊटपटाँग कहानी के लिए
मेरे पास समय नहीं
चला जाएगा यह दिन भी दबे पाँव
कुछ और पलों की हत्या करके।
बची रहेगी
केवल
हाथ हिला-हिला के टा-टा करती
आज की यह तारीख।
</poem>