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<poem>
हम लड़कियाँ मान लेती हैं
तुम जो भी कहते हो
हम लड़कियाँ शिकवे-शिकायत
सब गुड़ी-मुड़ी कर
गठरी बनाकर
आसमान में
रुई के फाहे सा
उड़ते बादलों के ढेर में
फेंक देती हैं,
कभी तुम जाओगे वहाँ
तो बहुत सी ऐसी गठरियाँ मिलेंगी

हम लड़कियाँ
देहरी के भीतर रहती हैं
तो भी शिकार होती हैं
शायद शिकार की परिभाषा
यहीं से शुरू होती है

हम लड़कियाँ
छिपा लेती हैं अपना मन
कपड़ों की तमाम तहों में
उघाड़ते हो जब तुम कपड़े
जिहादी बनकर
मन नहीं देख पाते हो

हम लड़कियाँ
कितना कुछ साबित करें
अपने बारे में
हर बार संदिग्ध हैं
तुम्हारी नजरों में

हम लड़कियाँ
बन जाती हैं तुम्हारे लिए
भूख-प्यास
बन जाती हैं तुम्हारे लिए
अजीवित प्राणी
तुम उन्हें उछाल देते हो
यहाँ-वहाँ गेंद की तरह

हम लड़कियाँ
धूल की तरह
झाड़ती चलती हैं
तुम्हारी उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान
तब जाकर पूरी होती है कहीं
तुम्हारी दी हुई आधी दुनिया
</poem>
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