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{{KKRachna
|रचनाकार=रहीम
|अनुवादक=
|संग्रह=रहीम दोहावली
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भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग । <BR/>साग। निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग ॥ 302 ॥ <BR/><BR/>फाग॥302॥
बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी । <BR/>कुम्हारी। द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि ॥ 303 ॥ <BR/><BR/>उनहारि॥303॥
कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई । <BR/>पाई। बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई ॥ 304 ॥ <BR/><BR/>खाई॥304॥
राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि । <BR/>टोरि। बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि ॥ 305 ॥ <BR/><BR/>बोरि॥305॥
परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई । <BR/>लेई। गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई ॥ 306 ॥ <BR/><BR/>देई॥306॥
रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात । <BR/>सात। फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात ॥ 307 ॥ <BR/><BR/>घात॥307॥
छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई । <BR/>लेई। हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई ॥ 308 ॥ <BR/><BR/>देई॥308॥नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ । <BR/>देइ। बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ ॥ 309 ॥ <BR/><BR/>टेइ॥309॥
सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय । <BR/>अघाय। कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय ॥ 310 ॥ <BR/><BR/>आय॥310॥
मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन । <BR/>बैन। मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन ॥ 311 ॥ <BR/><BR/>नैन॥311॥
सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर । <BR/>औसेर। करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि ॥ 312 ॥ <BR/><BR/>फेरि॥312॥
घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई । <BR/>लजाई। कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई ॥ 313 ॥ <BR/><BR/>जाई॥313॥
बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ । <BR/>पाइ। वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ ॥ 314 ॥ <BR/><BR/>जाइ॥314॥
रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि । <BR/>लेहि। औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि ॥ 315 ॥ <BR/><BR/>देहि॥315॥
निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक । <BR/>वाक। उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक ॥ 316 ॥ <BR/><BR/>चाक॥316॥
हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर । <BR/>बहुपीर। बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर ॥ 317 ॥ <BR/><BR/>तीर॥317॥
गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार । <BR/>गंवार। जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार ॥ 318 ॥ <BR/><BR/>उनहार॥318॥
बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि । <BR/>चिनगारि। बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि ॥ 319 ॥ <BR/><BR/>लुहारि॥319॥चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ । <BR/>सतराइ। रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ ॥ 320 ॥ <BR/><BR/>जाइ॥320॥
सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान । <BR/>पान। निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान ॥ 321 ॥ <BR/><BR/>प्रान॥321॥
मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर । <BR/>मरोर। आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर ॥ 322 ॥ <BR/><BR/>बोर॥322॥
रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग । <BR/>तरंग। आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग ॥ 323 ॥ <BR/><BR/>रंग॥323॥
नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत । <BR/>देत। मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती ॥ 324 ॥ <BR/><BR/>लेती॥324॥
जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक । <BR/>टेक। सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक ॥ 325 ॥ <BR/><BR/>सेक॥325॥
बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल । <BR/>फुलैल। बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल ॥ 326 ॥ <BR/><BR/>बैल॥326॥
भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात । <BR/>घात। आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात ॥ 327 ॥ <BR/><BR/>बात॥327॥
अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात । <BR/>गात। वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात ॥ 328 ॥ <BR/><BR/>अघात॥328॥
हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात । <BR/>नियरात। झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात ॥ 329 ॥ <BR/><BR/>ललचात॥329॥
गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात । <BR/>मुसकयात। डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात ॥ 330 ॥ <BR/><BR/>जात॥330॥परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि । <BR/>सुनारि। मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि ॥ 331 ॥ <BR/><BR/>सुनारि॥331॥
और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन । <BR/>कौन। लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन ॥ 332 ॥ <BR/><BR/>लौन॥332॥
बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट । <BR/>हाट। पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट ॥ 333 ॥ <BR/><BR/>वाट॥333॥
कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात । <BR/>बात। वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात ॥ 334 ॥ <BR/><BR/>जात॥334॥
रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग । <BR/>राग। न जानै संजोग रस, न जानै बैराग ॥ 335 ॥ <BR/><BR/>बैराग॥335॥
चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय । <BR/>लुभाय। गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय ॥ 336 ॥ <BR/><BR/>पाय॥336॥
मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई । <BR/>भाई। नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई ॥ 337 ॥ <BR/><BR/>दिखाई॥337॥
घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि । <BR/>साजि। घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि ॥ 338 ॥ <BR/><BR/>बाजि॥338॥
जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस । <BR/>आस। वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास ॥ 339 ॥ <BR/><BR/>बास॥339॥
सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल । <BR/>गुलाल। पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल ॥ 340 ॥ <BR/><BR/>लाल॥340॥
जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन । <BR/>मलीन। निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन ॥ 341 ॥ <BR/><BR/>मनमीन॥341॥बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू न ताहि । <BR/>ताहि। वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि ॥ 342 ॥ <BR/><BR/>आहि॥342॥
पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान । <BR/>निधान। सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान ॥ 343 ॥ <BR/><BR/>बान॥343॥
कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर । <BR/>कठोर। और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर ॥ 344 ॥ <BR/><BR/>सोर॥344॥
कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ । <BR/>भाइ। बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ ॥ 345 ॥ <BR/><BR/>भजाइ॥345॥
बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई । <BR/>जाई। मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई ॥ 346 ॥ <BR/><BR/>लाई॥346॥
निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात । <BR/>गात। मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ॥ 347 ॥ <BR/><BR/>ठहरात॥347॥
सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक । <BR/>कलंक। सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक ॥ 348 ॥ <BR/><BR/>मतंक॥348॥
नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय । <BR/>सतराय। छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय ॥ 349 ॥ <BR/><BR/>दिखाय॥349॥
बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस । <BR/>बांस। नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस ॥ 350 ॥ <BR/><BR/>सांस॥350॥
लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल । <BR/>ढाल। सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल ॥ 351 ॥ <BR/><BR/>माल॥351॥
कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग । <BR/>अंग। भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग ॥ 352 ॥ <BR/><BR/>संग॥352॥काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ । <BR/>जाइ। रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ ॥ 353 ॥ <BR/><BR/>लपटाइ॥353॥
बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह । <BR/>देह। फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह ॥ 354 ॥ <BR/><BR/>लेह॥354॥
नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ । <BR/>मुसक्याइ। उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ ॥ 355 ॥ <BR/><BR/>रिझाइ॥355॥
बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय । <BR/>समाय। निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय ॥ 356 ॥ <BR/><BR/>लुभाय॥356॥
प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान । <BR/>तान। मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान ॥ 357 ॥ <BR/><BR/>बान॥357॥
अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर । <BR/>बरजोर। चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर ॥ 358 ॥ <BR/><BR/>तोर॥358॥
कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप । <BR/>ताप। औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप ॥ 359 ॥ <BR/><BR/>अलाप॥359॥
लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान । <BR/>सुजान। गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान ॥ 360 ॥ <BR/><BR/>तान॥360॥
मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन । <BR/>लौन। आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन ॥ 361 ॥ <BR/><BR/>कौन॥361॥
मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई । <BR/>लेई। घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई ॥ 362 ॥ <BR/><BR/>देई॥362॥
विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन । <BR/>रैन। करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन ॥ 363 ॥ <BR/><BR/>सैन॥363॥अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त । <BR/>भित्त। लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त ॥ 364 ॥ <BR/><BR/>चित्त॥364॥
धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि । <BR/>त्यागि। थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग ॥ 365 ॥ <BR/><BR/>आग॥365॥
चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ । <BR/>भाइ। संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ ॥ 366 ॥ <BR/><BR/>अंगराइ॥366॥
रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह । <BR/>गेह। सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह ॥ 367 ॥ <BR/><BR/>सनेह॥367॥
बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक । <BR/>नोक। बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक ॥ 368 ॥ <BR/><BR/>जोंक॥368॥
नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल । <BR/>नाल। जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल ॥ 369 ॥ <BR/><BR/>नाल॥369॥
बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन । <BR/>पैन। जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन ॥ 370 ॥ <BR/><BR/>नैन॥370॥
धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति । <BR/>भांति। वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति ॥ 371 ॥ <BR/><BR/>तांति॥371॥
मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास । <BR/>अकास। सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास ॥ 372 ॥ <BR/><BR/>पास॥372॥
थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव । <BR/>सीव। रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव ॥ 373 ॥ <BR/><BR/>नीव॥373॥
पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात । <BR/>अंगरात। रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात ॥ 374 ॥ <BR/><BR/>रात॥374॥जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस । <BR/>अस। रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 375 ॥ <BR/><BR/>में॥375॥
ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों । <BR/>ज्यों। तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै ॥ 376 ॥ <BR/><BR/>लगै॥376॥
रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै । <BR/>तिरै। पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै ॥ 377 ॥ <BR/><BR/>परै॥377॥
रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं । <BR/>नहीं। तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ॥ 378 ॥ <BR/><BR/>नहीं॥378॥
बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं । <BR/>कहैं। हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें ॥ 379 ॥ <BR/><BR/>तें॥379॥
अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ । <BR/>साथ। सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ ॥ <BR/><BR/>हाथ॥रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं । <BR/>नहीं। जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै ॥ 380 ॥ <BR/><BR/>गनै॥380॥
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु । <BR/>बिनु। बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ॥ 381 ॥ <BR/><BR/>भलो॥381॥
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै । <BR/>लसै। कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै ॥ 382 ॥ <BR/><BR/>धरै॥382॥
रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में । <BR/>में। ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं ॥ 383 ॥ <BR/><BR/>नहीं॥383॥
चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो । <BR/>गयो। रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 384 ॥ <BR/><BR/>में॥384॥
घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान । <BR/>मान। डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान ॥ 385 ॥ <BR/><BR/>रहिमान॥385॥
बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस । <BR/>ईस। निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस ॥ 386 ॥ <BR/><BR/>सीस॥386॥
सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार । <BR/>कुमार। जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार ॥ 387 ॥ <BR/><BR/>अधार॥387॥
भजहु चराचर-नायक सूरज देव । <BR/>देव। दीन जनन-सुखदायक, तारत एव ॥ 388 ॥ <BR/><BR/>एव॥388॥
ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस । <BR/>ईस। नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ॥ 389 ॥ <BR/><BR/>सीस॥389॥
ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर । <BR/>समीर। खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर ॥ 390 ॥ <BR/><BR/>रघुवीर॥390॥
पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात । <BR/>जलजात। जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात ॥ 391 ॥ <BR/><BR/>बिलात॥391॥
करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर । <BR/>सोर। लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर ॥ 392 ॥ <BR/><BR/>नन्दकिसोर॥392॥
बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार । <BR/>धार। सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर ॥ 393 ॥ <BR/><BR/>नन्दकिसोर॥393॥
अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम । <BR/>घनश्याम। राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम ॥ 394 ॥ <BR/><BR/>बाम॥394॥
कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर । <BR/>धीर। सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर ॥ 395 ॥ <BR/><BR/>घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज । <BR/>पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज ॥ 396 ॥ <BR/><BR/>बलबीर॥395॥
बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव। मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव॥399॥ मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय । <BR/>सुहाय। गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय ॥ 400 ॥ <BR/>मिलाय॥400॥<BR/poem>