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|रचनाकार=राजेन्द्र जोशी
|संग्रह=मौन से बतकही / राजेन्द्र जोशी
}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>बाबूजी से आधी छुट्टी लेकर
अपना पूरा काम निपटाकर
हथेली पर लिखे पते पर
नंगे पाव ही चली जा रही थी
खुद का माल बेचने।

लाल माल उसके शरीर के अन्दर
जो था! सौदा तो पहले ही हो गया
तेज दौड़ दौड़ती
अब तो केवल आपूर्ति करनी थी
डेढ़ बोतल खून।

डेढ महीने के आटे की जुगत करनी है
इन पैसों से
यह सिलसिला वर्ष में चार बार
यूं ही चलता
डेढ़ बोतल खून का।

साढे़ अठ्ठारह वर्ष की बेटी
थोड़े ही दिनों में
जान जाएगी डेढ़ बोतल को
और फिर हाथ बंटाएगी
माँ के साथ
डेढ़ से तीन बोतल होगी
दोनों के खून से
</poem>
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