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10:16, 25 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
सूर्य की चमक में
तुम्हारा ताप है
हवाओं में
तुम्हारी साँस है
पाँखुरी की कोमलता में
तुम्हारा स्पर्श
सुगंध में
तुम्हारी पहचान।
जब जीना होता है तुम्हें
प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ
और आँखें
महसूस करती हैं
अपने भीतर तुम्हें।
मैं अपनी परछाईं में
देखती हूँ तुम्हें
परछाईं के काग़ज़ पर
लिखती हूँ गहरी परछाईं के
प्रणयजीवी शब्द।
तुम मेरी आँखों के भीतर
जो प्यार की पृथ्वी रचते हो
उसे मैं शब्द की प्रकृति में
घटित करती हूँ।
</poem>