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देह विदेह / पुष्पिता

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<poem>
दो गोलार्धों में
बाँट दिए जाने के बावजूद
पृथ्वी भीतर से कभी
दो ध्रुव नहीं होती
मेरी-तुम्हारी तरह

तुम्हारी साँसें
हवा होकर
हिस्सा होती हैं मेरी
मेरे बाहर और भीतर की प्रकृति की
सृष्टि बनती है तुमसे

तुम्हारा होना
मेरे लिए सूर्य-प्रकाश है
तुम्हारा वक्ष
धरती बनकर है मेरे पास

तुम्हारे होने से
पूरी पृथ्वी मेरी अपनी है
घर की तरह

चिड़ियों की चह-चह में
तुम्हारे ही शब्द हैं
मेरी मुक्ति के लिए

मुक्ति के बिना
शब्द भी सहचर नहीं बनते हैं

मुक्ति के बिना
सपने भी आँखों के घर में नहीं बसते हैं

मुक्ति के बिना
प्रकृति का राग भी
चेतना का संगीत नहीं

मुक्ति के बिना
आत्मा नहीं समझ पाती है
प्रेम की भाषा

मुक्ति के बिना
सब कुछ देह तक सीमित रहता है
मुक्ति में ही होती है देह विदेह।
</poem>
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