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04:03, 26 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
उसने
अपनी माँ का
बचपन नहीं देखा
पर
बचपन से देखा है उसने
अपनी माँ को।
जब से
समझने लगी है
अपने भीतर का सब कुछ
और
बाहर का थोड़ा-थोड़ा
लगता है
उसकी माँ की तरह की औरत
आकार लेने लगी है उसके भीतर
वैसे ही
गीली रहती हैं आँखें
वैसे ही
छुपाकर रोती है वह।
दुःख से ललाये गालों को देख
किसी के टोकने पर तपाक बोल पड़ती है वह
प्रेम-सुख से बहुत सुंदर हो रही है वह
इसीलिए कपोल हैं लाल
और आँखें सजल।
</poem>