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इकली स्त्री / पुष्पिता

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घर पर
छोड़ आती है अकेलापन
जिसे जीती है वह
और जो जीता है उसे
आमने सामने होने पर

अकेलापन
घर में रहता है उसके साथ
पहने हुए कपड़े की तरह
मन देह के अंतस का
एकांत ढाँपने के लिए

अवकाश के दिन
घर के भीतर देखता है
उसका अकेलापन
और सहलाता है उसे
सोयी हुई
अपनी मुलायम साँसों से

अकेलापन
घर-भीतर छिपा बैठा है
उसके हर सामान में
एक उदास ठंडक की तरह

आईना तक
ओढ़े रहता है अनुपस्थिति की स्याह चादर
समय का मौन समाया है घर के सन्नाटे में
अकेलेपन ने ऊब कर
घर के भीतर और बाहर उढ़ा दी है
उपेक्षा की श्वेत चादर

पूरे घर में
फैली रहती है
मौत की परछाईं
और अकेलेपन की कसक
जो
घर का ताला खुलते ही
उझक कर आ गिरती है
अकेली स्त्री की सूनी हथेली बीच
जिसे
सहेज कर रखती है अपनी मुट्ठी में
घर के अकेलेपन को कम करने के लिए
जो उस इकली स्त्री से भी ज्यादा झेलता है घुटन
उसके काम पर जाने के बाद

घर और स्त्री
दोनों पहचानते हैं एक दूसरे का अकेलापन
और दमतोड़ कोशिश करते हैं उसे कम करने की
एक दूसरे के आमने-सामने होने पर
स्त्री-पुरुष की तरह प्रायः
</poem>
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