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पृथ्वी / पुष्पिता

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<poem>
पृथ्वी
अकेली औरत की तरह
सह रही है
जीने का दुःख।

भीतर से खँखोर रहे हैं लोग
ऊपर से रौंद रहे हैं लोग
कुछ लोग
अपने उन्मादक आनंद के लिए
सजा और सँजो रहे हैं पृथ्वी
जैसा अकेली स्त्री के साथ
करते हैं सलूक।

सब देख रहे हैं
तहस-नहस
पृथ्वी भी देख रही है
क्रमशः
अपना विध्वंस
फिर भी
अनवरत
अपनी ही शक्ति से
कभी अग्नि
कभी वर्षा
कभी तूफ़ान
कभी बाढ़
कभी अकाल से
रचाती रहती है संतुलन
विध्वंसकारी शक्तियों के विरुद्ध।

बचाए रखती है अपनी हरियाली
अपनी वर्षा
अपनी शीतलता
अपनी उर्वरता
अपनी पवित्रता
अपनी अस्मिता
एक अकेली पृथ्वी
एक अकेली स्त्री की तरह।
</poem>
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