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मुक्ति / अंजू शर्मा

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जाओ.......

मैं सौंपती हूँ तुम्हें

उन बंजारन हवाओं को

जो छूती हैं मेरी दहलीज

और चल देती हैं तुम्हारे शहर की ओर

बनने संगिनी एक रफ़्तार के सौदागर

मैं सौंपती हूँ तुम्हे

उस छत को जिसकी मुंडेर भीगी है

तुम्हारे आंसुओं से, जो कभी तुमने

मेरी याद में बहाए थे,

तुम्हारे आँगन में उग रहे हैं

मोगरे के फूल और हंस दोगे यदि देखोगे

मेरे आंगन के फूल सजे हैं

देवता की थाली में,

मैं सौंपती हूँ तुम्हे

तुम्हारी उन कविताओं को

जो आइना हैं शहर भर का

जो सजी हैं सपनीले इन्द्रधनुष से

पर जिनमें रंग नहीं है मेरे पैरहन का,

तुम्हारा घर ढँक चुका है

किस्म किस्म के बादलों से

और बारिश की बूँदें बदल रही हैं

प्रेम पत्रों में,

जिनके ढेर में खो चुकी है

मेरी पहली चिट्ठी,

मैं सौंपती हूँ तुम्हे उन रास्तों को

जो गुम हो जाते हैं कुछ दूर जाकर,

शायद ढून्ढ रहे हैं उस बस को

जो तुम्हे मुझ तक लाया करती थी,

और लौटते समय जिसकी आखिरी खिड़की

अलविदा कहती थी मेरे घर की खिड़की को,

को

की,

जिस पर आज भी पर्दा नहीं है,

उन रास्तों पर उग रही हैं

रोज़ नयी चट्टानें जिनकी तलहटी पर

सिसक रहे हैं भावनाओं के कैक्टस,

मैं सौंपती हूँ तुम्हे

रोशनियों के उस शहर को

जिसके लिए उजाले चुराए हैं तुमने

मेरी आँखों से,

मेरे शहर में अब अँधेरा है और

सारे जुगनू चमक रहे हैं मेरी

पलकों के कोरों पर,

मैं सौंपती हूँ तुम्हे उस अहसास को

जो देता है रोज़ तुम्हे एक नयी मुस्कराहट

और जीने की एक नयी वजह,

और मेरा एक और दिन कट जाता है

साल के कैलेंडर से,

जाओ और पा लो खुदको,

कर लो

वरण

और मैं अर्जुन के सहस्त्र बाणों से बिंधी

प्रतीक्षा करूंगी अपनी मुक्ति की.......
</poem>
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