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|रचनाकार=पुरुषोत्तम अग्रवाल
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<poem>
पहले ही आए होते.

मेरी हथेली गर्म, खुरदुरे स्पर्श से भर गयी थी
विशेषणों से अलग कर किसी संज्ञा के जरिए पहचान सकूं
इसके पहले ही फिसल गया वह स्पर्श हथेली से
बेचैन, हतप्रभ छोड़ मुझे...
काश जान पाता किसी तरह
क्या था वह
जो एकाएक भर मेरी हथेली,
एकाएक ही फिसल भी गया.

कौन सी जगह थी वो जिसने भरी थी मेरी हथेली उस स्पर्श से
खोजता रहा सोचता रहा, सोचता रहा खोजता रहा,
कौन सी थी वह जगह
पुरी का सागर तट
अलकनंदा का अनवरत प्रवाह
सरयू की ठहरी सी धार...
जे.एन.यू. की रात के अंतिम पहर का सन्नाटा
कालीघाट, दश्वाश्वमेध,
हाइगेट का कब्रिस्तान,
आज़्तेकों का तेउतियाखान
जिन्नात का बनाया किला ग्वालियर का
या मोहल्ले का बुजुर्ग वह पेड़ पीपल का....

हर जगह दोबारा लौटा
खड़ा हुआ, गहरी साँस ली, टटोला, टोया
हँसा, गाया और...रोया...
सब व्यर्थ
क्या सच, सब व्यर्थ?

कहीं दोबारा नहीं गया था मैं
हर जगह पहुँचा पहली ही बार
इस वहम के साथ कि पहले भी आए थे
इस कसक के साथ कि पहले ही आए होते.
</poem>
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