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दिंग्नूपुर झनक उठे
घन कुन्तल-मेघ घिरे कब सुध-बुध क्षण-पल की चम-चम-चम जब चमकी चंचल-चंचल जल की
हीरक-सी छवि, छलकी
ऐसी रस-धार बही
मन डूबे, डूब तिरे
चेतनता तन की हर रहा अन्धकार उतर
अम्बर, भू-आँगन भर
यौवन की उठे लहर
ज्वार राग का उमडा
बन्धन-तट टूट गिरे
रोम-रोम रोमांचित तन्द्रिल, विश्लथ, कम्पित हास-सुधा-उर-सिंचित
हुए अधर-पुट कुंचित
दल के दल शतदल के
आनन पर आन फिरें
जब कुन्तल-मेघ घिरे घन कुन्तल-मेघ घिरे
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