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चमक तुरत चञ्चल चपला-सी दृग-अञ्चल ढक लेती॥
जबतक इस घूँघट वाली का मुख नहिं देखा जाता।
नाना भाँति जीव तबतक अकुञ्लाताअकुलाता, कष्ट उठाता॥
जिस दिन यह आवरण दूर कर दिव्य द्युति दिखलाती।
परिचय दे, पहचान बताकर शीतल करती छाती॥
सहज दया की मूरति देवी ने जबसे अपनाया।
महिमामय मुखमण्डल अपनेकी दिखला दी छाया॥
तब से अभय हुआ, आकुञ्लता आकुलता मिटी, प्रेम-रस छलका।
मनका उतरा भार सभी, अब हृदय हो गया हलका॥
जिन विभीषिकाओं से डरकर पहले था थर्राता।